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एक उम्र गुज़ार दी यह सोचते सोचते कि यहां कौन सही है और कौन गलत?

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जो कल तक सही लगता था पल भर में वह गलत लगने लगता है और वो जो कल तक गलत लगता था पल भर में वह सही लगने लगता है..एक अरसे तक तो यही लगता था कि वह शायद बदल गया है, उससे नाराज़ भी होता, खफा भी होता लेकिन धीरे धीरे यह अहसास होने लगा कि बदलाव सामने वाले में ही आया हो, ऐसा हमेशा जरूरी नही..इसके लिए मेरा नज़रिया, मेरी जरूरतें भी उतनी ही जिम्मेदार हैं। जब खुद पर नज़र डाली तो पाया कि मेरी जरूरतें, मेरा नज़रिया यह तय करता है कि मुझे सामने वाले का कौन सा रूप देखना है? अगर उसकी जरूरत है तो उसकी अच्छाईयां दिखने लगती है और अगर उसकी जरूरत नही तो उसकी बुराइयां दिखने लगती हैं.. उसकी कमियां या खूबियां गिनवाना तो बस अपने तर्क को सही ठहराने का एक बहाना भर है, असल में दिल के किसी गहराई में हम अपना निर्णय पहले ही ले चुके होते है.. जब यह जाना तो अहसास हुआ कि मुझे जरूरत उन्हें बदलने की नही, बल्कि अपना नज़रिया बदलने की है..जब से यह कोशिश शुरू की है जिंदगी आसान सी हो गई है। अब किसी पर कोई गुस्सा नही आता, अब कोई बुरा भी नही लगता, हर कोई अपनी ही तरह लगता है। अब किसी दूसरे को बदलने की कोशिश नही करता बस अपना नजरिया ठीक रखने की कोशिश किया करता हूँ। अब जानता हूँ कि यहाँ हम सभी कहीं न कहीं सही है और कहीं न कहीं गलत भी है..बस जरूरत है तो दूसरों को बदलने की जिद्द छोड़ खुद अपना नज़रिया बदलने की ..

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